Poem: Man and the city
आदमी और शहर
शहर होते हैं बूढ़े
आदमी की तरह
सूख जाते हैं बगीचे
उग आती हैं झाड़ियाँ बदरंग
बजबजाती हैं गलियाँ
बंद हो जाती हैं एक दिन
बँगले ढह जाते हैं
घास फैलती है चौबारों में
जंगली, बेतरतीब
टूटी मुड़ेर पर बैठी चील देखती है
सब कुछ निर्विकार
और बैठी रहती है वैसे ही जाने क्या सोचती
नदी छोड़ जाती है रेत
हवा में काँपती, उड़ती बगूलों में
एक खौराया कुत्ता मरगिल्ला
ठहरकर ताकता है बेहिस निगाहों से
फिर चल पड़ता है निरुद्देश्य
हँसते-खिलखिलाते चेहरे पककर चिटक जाते हैं एक दिन
हो जाते हैं झुर्रियों में तब्दील
रहते हैं स्मृति में वैसे ही फिर भी
जैसे था शहर कभी
धुला-धुला बारिश में गहगहाता
कमलाकांत त्रिपाठी की कलम से