निर्वासित है नदी की संस्कृति
एक नदी थी वहाँ
उत्सव-सी
लपेटने लगती थी बहुत पहले से
राग-रंग में अपने
बाग़ों का सिलसिला ख़त्म होते ही
सिर हिलाते थे स्वागत में
सफ़ेद बालोंवाले सरकंडे
फिर उछलने लगती थी हमारी सड़क
ढलान पर टेढ़ी-मेढ़ी
नदी से मिलने को आतुर.
अंत में दुबक जाती थी कहीं बालू और सरपत के खड्डों के बीच
हमारा साथ छोड़कर
तब धँसने लगते थे हमारे पैर
दूर तक बिछे बालू के सफ़ेद गलीचे पर
आगे किनारा था और
धीरे-धीरे हिलकोरें मारता पानी
धोता था हमारे पैर
भीगी और थिर थी बालू वहाँ
बहुत मुलयाम भी.
तलवे को सहलाती-गुदगुदाती.
वहीं घाट था, एक मठिया भी थी जाने कब से.
वहीं मिलती थी नाव
इस-उस किनारे पर रुकी या उनके बीच आते-जाते
अक्सर उघारे बदन मल्लाह के साथ
चप्पू और बाँस के लग्गे से लैस.
होते थे मुसाफ़िर वहीं
दोनों किनारों पर और नाव में भी.
ज़रूर होती थी कोई लंबे घूँघटवाली रंग-बिरंगी दुल्हन
बहुत सुंदर होता था उसका अदृश्य चेहरा
हमारी कल्पना में हमेशा
और भरता था उत्सव में एक कोमल-सा रंग.
कभी गाय-बकरियाँ-मुर्गियाँ भी होती थीं मुसाफ़िरों में
बहुत एहतियात बरतती थीं हमारे साथ
अभिभावकों की निगरानी में.
बीच धारा में तेज़-तेज़ बहता साफ़ पानी बहुत ललचाता था हमें
चुल्लू में उठाने की कोशिश में डाँट खाते थे हमेशा हम.
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अब वहाँ पुल है
दूर से ही अकड़कर ऊँची होने लगती है सड़क
नदी से मिलती नहीं, न कहीं दुबकती है.
तिरस्कार से रौंदती उसे
ऊपर से निकल जाती है आगे.
नाव और मल्लाह और चप्पू और बाँस के लग्गे का क्या हुआ, पता नहीं.
खो गया घाट कहाँ
कहाँ खो गई मठिया, पता नहीं.
नहीं दिखते मुसाफ़िर अब
इलाक़े की घूँघटवाली दुल्हनें, गाएँ, बकरियाँ, मुर्गियाँ
सब कहाँ गईं, पता नहीं.
दिखती हैं बस गाड़ियाँ–छोटी-बड़ी, खटारा, लकदक
हेकड़ी में सर्राटे से गुजरती.
रुकती हैं सिर्फ़ नाके पर
बाहुबली ठेकेदार के कुछ निठल्ले मुस्टंडे
हमेशा हर किसी से लड़ने, फ़ज़ीहत करने को तैयार
हू-हा करते रहते हैं वहाँ.
नदी बहुत जर्जर, बहुत पामाल दिखती है पुल से
नहीं दिखती उसकी धारा, बहता हुआ साफ़ पानी
दिखता है बस उजाड़, बदरंग पाट
बीच-बीच में कुछ गड्ढे-गड़हियों में
रुका हुआ पानी
गंदा, बदसूरत.
उद्धत विकास और
पुल की नाकेबंदी के बाद से
ग़ायब है नदी का उत्सव
निर्वासित है
नदी की संस्कृति…………
सर कमलाकांत त्रिपाठी की कलम से
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