(71-वर्षीय) यात्रा के अंत में (एक पुरानी कविता)
याद नहीं होते रास्ते के मोड़
यात्रा के अंत में
पर याद होती हैं तालाब की वे टूटी सीढ़ियाँ
जिन पर अबेर में बैठकर
धूल-सने बच्चे की पीठ मलती माँ
जबरन उसे नहला रही होती है.
याद होते हैं वे मेड़ जिन पर अपने से दूना बोझ उठाए बच्चे
चलते-चलते ठिठककर जाने क्या देखने लगते हैं हममें.
हरी-उमड़ी फ़सल के बीच झुकी वह लड़की
जो हमें देखकर औचक खड़ी हो जाती है
मालूम नहीं होता क्या है उसकी उस साफ़ धुली नज़र में
कैसा डर और कैसा दर्द और कैसा सपना
दुनिया के किस कोने में कैसी ज़िंदगी इंतज़ार कर रही है उसका ?
याद होती हैं पेड़ों के झुरमुट से झाँकती वे झोपड़ियाँ भी
जिनके इर्द-गिर्द की ज़मीन
खूँटे से बँधी पगुराती गायों, भैंसों, बकरियों
नटखट चूजों के झुंड सँभालती मुर्गियों
और कटोरे में भात खाते नंग-धड़ंग बच्चों से
चितकबरी रँगी होती है.
जल्द ही गुम हो जाते हैं वे जिनके साथ हम सफ़र करते हैं
लेकिन रह जाते हैं वे जिनके बीच से हम सर्राटे से निकल आते हैं
और रह जाते हैं ढेरों सवाल जो वो कभी किसी से नहीं पूछते.
यात्रा के अंत में हम वहाँ नहीं होते जहाँ से चले होते हैं.
और वह भी नहीं होते जो चले होते हैं.
……………………….
सर कमलाकांत त्रिपाठी की कलम से