घूम आए हम सुबह-सुबह
मार्कंडेय और किसान
घूम आए हम सुबह-सुबह
मार्कंडेय तक
मार्कंडेय, जो नदी है नाला जैसी
नाला है नदी जैसा
बिना बीहड़, बिना सरपत,
बिना नाव, बिना पुल.
धान के खेत हैं इधर
धान के खेत हैं उधर
खेत और नदी के बीच
बस एक मेड़ का अंतराल है दोनों ओर
बलवान और कमज़ोर के बीच
नियंत्रण रेखा-जैसा.
बौरा जाती है नदी बारिश में
हिस्टीरिकल हो जाती है
उतर आती है नंगई पर
नहीं मानती कोई सीमा
कट-फट जाता है मेड़
सिकुड़ जाता है खेत
अपनी सज्जनता में
रौंद उठती किनारे की फ़सल
बह जाती है किसान की मेहनत
बह जाती है धान की ख़ुशबू
बह जाता है किसान का भविष्य.
पर हारती है आख़िर नदी ही
हर बार
जुड़ जाता है मेड़ फिर से
फावड़े की कन्नी, किसान की मेहनत
और मिट्टी व पसीने के गारे से
लगती है धान की फ़सल फिर से
पकती है, लगती है, फिर पकती है
और चलता रहता है अविराम
लगने और फूटने
पेट में जाने और फिर से धान लगाने
की ताक़त देने का
यह खेल
बालें फूटने से पहले ही उठने लगती है गमक
कटने के बाद तक बसी रहती है
खेत में, बिखरे पुआल में,
पुआल के ढेर में.
और नदी पड़ी रहती है पस्त
सोई हुई
हिस्टीरिया के बाद की ख़ुमारी में
बारिश तक.
और लगती है फ़सल
बारिश में भी
बिना डरे नदी से रंच मात्र
मेड़ के इस पार, मेड़ के उस पार
मेड़ से सटकर
जानते हुए भी
अपना हश्र
काटकर मिटा सकती है नदी
मेड़ को,
रौंद सकती है फ़सल को
बहा ले जा सकती है
उसकी ख़ुशबू,
किसान का पसीना
नदी नदी है
तो किसान भी किसान है
चिरकाल से लड़ता
नदी से और दुनिया से.