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कोरोना हमारे जीवनकाल में ऐसा वक़्त लाएगा, जब हम इतने असहाय हो जाएंगे
कोविड-19 की पीड़ा
हमने कभी सोचा नहीं था, हमारे ही जीवनकाल में ऐसा वक़्त आएगा जब हम इतने अवश, असहाय हो जाएंगे।
पहली लहर कमज़ोर पड़ते ही हम अपनी ही पीठ थपथपाने लगे। दुनिया को चुनौती के स्वर में बताने लगे कि इतनी बड़ी आबादी के बावजूद हमने समय पर लॉकडाउन लगाकर बहुत कम नुक़सान के साथ इससे निपट लिया जब कि बड़े बड़े उन्नत देश अतिशय नुकसान उठाकर भी अभी तक झेल रहे हैं। फिर वैक्सीन खोजने में वैज्ञानिकों की सफलता पर इतने आत्ममुग्ध कि भविष्य की ज़रूरत भूलकर धड़ाधड़ निर्यात करने लगे। तब विपक्ष ने भी चूं नहीं की। किसी ने सोचा ही नहीं कि इस बार इतिहास की एक विलक्षण, अनन्य और अननुमेय त्रासदी से पाला पड़ा है जो हारकर भी नहीं हारती, बल्कि दूने आवेग से हमला करती है।
अब ऐसी भयानक स्थिति सामने है कि सबकी चकौती गुल। एक दूसरे पर दोषारोपण में झांय झांय करने के बजाय एकजुट होकर किसी दूरदर्शी क़दम की कोई बात नहीं। सत्ता पक्ष ईमानदारी से यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उस समय की स्थिति को देखते हुए भविष्य के आकलन में भूल हो गई और उसका एहसास होते ही तदनुरूप सुधार कर लिया गया। बजाए इसके वही दोषारोपण का राग कि आपको तो वैक्सीन पर विश्वास ही नहीं था, उसे हानिकर बता रहे थे। विपक्ष भी बाद में बुद्धिमान बनने और नहले पर दहला लगाने से कब चूका है ! निर्यात सत्तापक्ष का दिवालियापन था, कमी होने पर भेदभाव, बंदरबांट हो रही है। जाने कितने वैक्सीन केंद्र बंद हो गए और लगातार बंद हो रहे हैं। वगैरह, वगैरह।
इस बार रोज़ कुंआं खोदने और रोज पानी पीने को मजबूर दिहाड़ी मज़दूरों और खतरा मोल लेकर उनके निराश पलायन की भी कोई बात नहीं कर रहा। पहले से ही लखड़ाई अर्थव्यवस्था के पंगु होकर बैठ जाने की आशंका भी कोई व्यक्त नहीं कर रहा। जब पक्ष, विपक्ष के नेता, अधिकारी, संत महात्मा ही आए दिन नई लहर की चपेट में आ रहे हैं तो औरों की क्या बात ! सारा ध्यान वर्तमान और भविष्य के चुनाव जीतने पर।
और दृश्य मीडिया तो जैसे जश्न मनाने पर उतर आया हो। त्रासदी की संख्या के विस्तार को इतनी सनसनी और इतने उत्साह से बताता है, जैसे कोई बड़ी उपलब्धि हो। घर बैठने को मजबूर लोग उसे छोड़कर करें तो क्या करें, जाएं तो कहां जाएं !
इस बार फेसबुक पर भी इसकी उपस्थिति ने तहलका मचा रखा है। आए दिन मित्र पॉजिटिव हो रहे हैं, उसकी सूचना। मित्रों के मित्र, परिजन, संबंधी अकाल कवलित हो रहे हैं, उसकी सूचना। सभी मजबूर, सभी दिशाहीन। शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की शुभ कामना और औपचारिक श्रद्धांजलि के शब्द खोखले लगने लगे हैं। हर बार यही दर्दनाक एहसास — अहन्यहनि हि भूतानि गच्छन्ति यममंदिरम्। शेषा: जीवितुमिच्छंति किमाश्चर्यमत: परम्।।
और इस अभूतपूर्व आपदा के अंत का कोई ठिकाना नहीं। जाने कितनी लहर आएगी। और कौन सी लहर कितनी भयानक होगी। दुनिया के इतिहास में मनुष्य में इतना असामर्थ्य-बोध शायद कभी नहीं हुआ था।
ऐसे में जो धैर्य और शांति से पीड़ितों के काम आ रहे हैं, अस्पतालों में सुविधाओं की कमी के बावजूद जीवनरक्षा के लिए अनवरत संघर्ष कर रहे हैं, पाबंदियों का निष्ठा से पालन कर रहे हैं, निरासक्त भाव से और चुपचाप अपना काम कर रहे हैं, दिन रात अभावों और असुविधाओं से संघर्ष कर रहे हैं, मित्रों, परिजनों को ढाढस बंधा रहे हैं,अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए यथासंभव उनकी सेवा और सहायता कर रहे हैं, वही आज के ईश्वर हैं। युगों युगों से पूजा गया अदृश्य, अज्ञेय और सर्वशक्तिमान ईश्वर काम नहीं आया, न कभी आएगा।
दुनिया को हम ही बनाते हैं, हम ही बिगाड़ते हैं। और अहैतुक दैवी आपदाओं से बचने, उनका सामना करने का उपाय भी हम ही निकालते हैं। बाक़ी सब ख़याली पुलाव है, कुछ लोगों का धंधा चलता रहे बस उसी का उपादान। अब तो इसका एहसास हो जाना चाहिए।
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कमलाकांत त्रिपाठी की कलम से